Saturday, 24 September 2016

रोटी और स्वाधीनता - रामधारी सिंह 'दिनकर'


स्वातंत्र्य गर्व उनका, जो नर फांको में प्राण गंवाते हैं,
पर, नहीं बेच मन का प्रकाश रोटी का मोल चुकाते हैं।
स्वातंत्र्य गर्व उनका, जिनपर संकट की घात न चलती है 
तुफानो में जिनकी मशाल कुछ और तेज़ हो जलती है।

स्वातंत्र्य उमंगो की तरंग, नर में गौरव की ज्वाला है,
स्वातंत्र्य रूह की ग्रीवा में अनमोल विजय की माला है।
स्वातंत्र्य भाव नर का अदम्य, वह जो चाहे कर सकता है,
 शासन की कौन बिसात, पाँव विधि की लिपि पर धर सकता है।

जिंदगी वहीँ तक नहीं, ध्वजा जिस जगह विगत युग ने गाड़ी,
मालूम किसी को नहीं अनागत नर की दुविधाएं सारी।
सारा जीवन नप चूका, कहे जो, वह दासता प्रचारक है,
नर के विवेक का शत्रु, मनुज की मेधा का संहारक है।

जो कहे सोच मत स्वयं, बात जो कहूँ, मानता चल उसको,
नर की स्वतंत्रता की मणि का तू कह अराति प्रबल उसको।
नर के स्वतंत्र चिंतन से जो डरता, कदर्य, अविचारी है,
बेड़ियां बुद्धि को जो देता है, जुल्मी है, अत्याचारी है।

लक्ष्मण-रेखा के दास तटों तक ही जाकर फिर आते हैं,
वर्जित समुद्र में नांव लिए स्वाधीन वीर ही जाते हैं।
आज़ादी है अधिकार खोज की नयी राह पर आने का,
आज़ादी है अधिकार नये द्वीपों का पता लगाने का।

रोटी उसकी, जिसका अनाज, जिसकी जमीन, जिसका श्रम है,
अब कौन उलट सकता स्वतंत्रता का सुसिद्ध, सीधा क्रम है।
आज़ादी है अधिकार परिश्रम का पुनीत फल पाने का,
आज़ादी है अधिकार शोषणों की धज्जियाँ उड़ने का। 

गौरव की भाषा नई सीख, भिखमंगो की आवाज बदल,
सिमटी बांहो को खोल गरुड़, उड़ने का अब अंदाज बदल।
स्वाधीन मनुज की इच्छा के आगे पहाड़ हिल सकते हैं,
रोटी क्या ? ये अम्बरवाले सारे श्रृंगार मिल सकते हैं।

शक्ति और क्षमा - रामधारी सिंह 'दिनकर'

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ सुयोधन तुमसे
कहो कहाँ कब हारा?

क्षमाशील हो रिपु-सक्षम
तुम हुये विनीत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही

अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है

क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो 
उसका क्या जो दंतहीन
विषरहित विनीत सरल हो 

तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिंधु किनारे
बैठे पढते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे प्यारे

उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नही सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से

सिंधु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता गृहण की
बंधा मूढ़ बन्धन में

सच पूछो तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
संधिवचन सम्पूज्य उसी का
जिसमे शक्ति विजय की

सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है 

राधा सौंदर्य - कवी बेनी

करि की चुराई चाल
सिंह को चुरायो लंक
ससि को चुरायो मुख
नासा चोरी कीर की

पिक को चुरायो बैन
मृग को चुरायो नैन
दसन अनार
हाँसी बिजुरी गंभीर की

कहे कवि बेनी बेनी ब्याल की चुराय लीनी
रति रति सोभा सब रती के सरीर की
अब तो कन्हैया जु को
चीतहु चुराय लीनो

चोरटी है गोरठी यह छोरटी अहीर की

रश्मिरथी - रामधारी सिंह 'दिनकर'

यह काव्यांश दिनकर जी की अविस्मरणीय रचना रश्मिरथी के तृतीय सर्ग का दूसरा भाग है. महाकाव्य रश्मिरथी कर्ण के जीवन पर आधारित है. इस काव्यांश में कृष्ण पांडवों  का संदेश कौरवों को सुना रहे हैं, कृष्ण के विकराल रूप की व्याख्या अद्वितीय है.


वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
        सौभाग्य न सब दिन सोता है,
        देखें, आगे क्या होता है।


मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
        भगवान् हस्तिनापुर आये,
        पांडव का संदेशा लाये।


"दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
        हम वहीं खुशी से खायेंगे,
        परिजन पर असि न उठायेंगे!"


दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
        जब नाश मनुज पर छाता है,
        पहले विवेक मर जाता है।


हरि ने भीषण हुँकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
        "जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
        हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।


"यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झन्कार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
        अमरत्व फूलता है मुझमें
        संहार झूलता है मुझमें।


'उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
        दिपते जो ग्रह-नक्षत्र-निकर,
        सब हैं मेरे मुख के अन्दर।


'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
        शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
        शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र;


"शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
        जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
        हाँ-हाँ, दुर्योधन! बाँध इन्हें।


"भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख, जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
        मृतकों से पटी हुई भू है,
        पहचान, कहाँ इसमें तू है।


"अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
        सब जन्म मुझी से पाते हैं,
        फिर लौट मुझी में आते हैं।


"जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
        मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
        छा जाता चारों ओर मरण।


"बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
        सूने को साध न सकता है,
        वह मुझे बाँध कब सकता है?


"हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
        याचना नहीं, अब रण होगा,
        जीवन-जय या कि मरण होगा।


"टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
        दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
        फिर कभी नहीं जैसा होगा।


"भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
        आखिर तू भूशायी होगा,
        हिंसा का पर, दायी होगा।"


थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर न अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
        कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
        दोनों पुकारते थे 'जय-जय!'

Friday, 23 September 2016

सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो, अब गोविंद ना आयंगे - पुष्यमित्र उपाध्याय

छोड़ो मेहँदी खडग संभालो, खुद ही अपना चीर बचा लो,
द्यूत बिछाये बैठे शकुनि, मस्तक सब बिक जायेंगे
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो, अब गोविंद ना आयेंगे.

कब तक आस लगाओगी तुम, बिक़े हुए अखबारों से,
कैसी रक्षा मांग रही हो, दुशासन दरबारों से,
स्वयं जो लज्जा हीन पड़े हैं, वे क्या लाज बचायेंगे
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो अब गोविंद ना आयंगे.

कल तक केवल अँधा राजा, अब गूंगा बहरा भी है
होठ सी दिए हैं जनता के, कानों पर पहरा भी है,
तुम ही कहो ये अश्रु तुम्हारे, किसको क्या समझायेंगे?
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो, अब गोविंद ना आयंगे 

तुम हमारी चोटियों की बर्फ़ को यों मत कुरेदो - रामानंद दोषी

आंधियों ने गोद में हमको खिलाया है न भूलो,
कंटकों ने सिर हमें सादर झुकाया है न भूलो,
सिन्धु का मथकर कलेजा हम सुधा भी शोध लाए,
औ’ हमारे तेज से सूरज लजाया है न भूलो !

वे हमीं तो हैं कि इक हुंकार से यह भूमि कांपी,
वे हमीं तो हैं जिन्होंने तीन डग में सृष्टि नापी,
और वे भी हम कि जिनकी सभ्यता के विजय रथ की
धूल उड़ कर छोड़ आई छाप अपनी विश्वव्यापी !

वक्र हो आई भृकुटी तो ये अचल नगराज डोले,
दश दिशाओं के सकल दिक्पाल ये गजराज डोले,
डोल उट्ठी है धरा, अम्बर, भुवन, नक्षत्र-मंडल,
ढीठ अत्याचारियों के अहंकारी ताज डोले !

सुयश की प्रस्तर-शिला पर चिन्ह गहरे हैं हमारे,
ज्ञान-शिखरों पर धवल ध्वज-चिन्ह हैं लहरे हमारे,
वेग जिनका यों कि जैसे काल की अंगड़ाइयाँ हों,
उन तरंगों में निडर जलयान ठहरे हैं हमारे !

मस्त योगी हैं कि हम सुख देखकर सबका सुखी हैं,
कुछ अजब मन है कि हम दुख देखकर सबका दुखी हैं,
तुम हमारी चोटियों की बर्फ़ को यो मत कुरेदो,
दहकता लावा हृदय में है कि हम ज्वालामुखी हैं !

लास्य भी हमने किए हैं, और तांडव भी किए हैं,
वंश मीरा और शिव के, विष पिया है औ’ जिए हैं,
दूध माँ का, या कि चन्दन, या कि केसर जो समझ लो,
यह हमारे देश की रज है, कि हम इसके लिए हैं !

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के - शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के
पिंजरबद्ध न रह पाएँगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे।

हम बहता जल पीनेवाले
मर जाएँगे भूखे-प्‍यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से,

स्‍वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले।

ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंचखोल
चुगते तारक-अनार के दाने।

होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती साँसों की डोरी।

नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्‍न-भिन्‍न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं, तो
आकुल उड़ान में विघ्‍न न डालो।